हां, चेक बाउंस का मामला सिविल मुकदमे के साथ ही दायर किया जा सकता है, क्योंकि भारतीय कानून के तहत ये अलग-अलग कानूनी उपाय हैं। नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत चेक बाउंस का मामला: यह एक आपराधिक मामला है जिसका उद्देश्य अपमानित चेक जारी करने वाले को दंडित करना है। इसका प्राथमिक उपाय दंडात्मक प्रकृति का है, जिसके परिणामस्वरूप कारावास (2 वर्ष तक) और/या चेक राशि के दोगुने तक का जुर्माना हो सकता है। इसके अतिरिक्त, न्यायालय चेक जारी करने वाले को भुगतानकर्ता को मुआवज़ा देने का निर्देश दे सकता है। वसूली के लिए सिविल मुकदमा: चेक राशि की वसूली के लिए सिविल मुकदमा अलग से दायर किया जा सकता है, साथ ही किसी भी अतिरिक्त हर्जाने या ब्याज के लिए भी। इसका उद्देश्य अपमानित राशि की वापसी के लिए डिक्री प्राप्त करना है। एक साथ दाखिल करने की अनुमति: ये उपाय परस्पर अनन्य नहीं हैं, क्योंकि आपराधिक मामला अपराधी को दंडित करने पर केंद्रित है, जबकि सिविल मुकदमा वित्तीय वसूली को संबोधित करता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि दोनों मामलों को एक साथ दायर करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(2) के तहत दोहरा जोखिम नहीं है। विचार करने के लिए मुख्य बिंदु: अधिकार क्षेत्र: चेक बाउंस का मामला उस न्यायालय में दायर किया जाना चाहिए, जिसका अधिकार क्षेत्र उस स्थान पर हो, जहाँ भुगतानकर्ता का बैंक स्थित है। सिविल मुकदमा दावे के मौद्रिक मूल्य और क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के आधार पर सिविल न्यायालय में दायर किया जाता है। समय-सीमा: धारा 138 के तहत चेक बाउंस के मामले में नोटिस जारी करने और शिकायत दर्ज करने के लिए सख्त समय-सीमाएँ हैं। सिविल मुकदमा डिफ़ॉल्ट की तिथि से 3 वर्ष की सामान्य सीमा अवधि के भीतर दायर किया जा सकता है। परिणाम: चेक बाउंस का मामला जीतने से पैसे की वसूली अपने आप नहीं हो जाती; प्रवर्तन न्यायालय के निर्देशों पर निर्भर करता है। सिविल मुकदमे में डिक्री निष्पादन कार्यवाही के माध्यम से मौद्रिक वसूली सुनिश्चित करती है। व्यावहारिक दृष्टिकोण: कई पक्ष इन कार्यवाहियों के दौरान अदालत के बाहर समझौता करना चुनते हैं, खासकर जब दोनों उपायों को एक साथ आगे बढ़ाया जाता है, ताकि लंबी मुकदमेबाजी से बचा जा सके। निष्कर्ष: चेक बाउंस केस और सिविल मुकदमा दोनों को एक साथ दायर करना कानूनी रूप से स्वीकार्य है। हालाँकि, दोनों को आगे बढ़ाने में अतिरिक्त लागत और समय लग सकता है। परिस्थितियों के आधार पर सबसे प्रभावी रणनीति निर्धारित करने के लिए वकील से परामर्श करना उचित है।
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