भारत में मुस्लिम कानून के तहत, बच्चे की कस्टडी में माँ के अधिकार शरिया सिद्धांतों और भारतीय न्यायालयों द्वारा प्रदान किए गए कानूनी ढांचे दोनों पर आधारित हैं। बच्चों की कस्टडी, विशेष रूप से तलाक या अलगाव के मामले में, आम तौर पर बच्चे के कल्याण को ध्यान में रखते हुए निर्धारित की जाती है। मुस्लिम कानून के तहत बच्चे की कस्टडी में माँ के अधिकारों के बारे में यहाँ मुख्य बिंदु दिए गए हैं: 1. हिज़ानत (मातृ अभिरक्षा): हिज़ानत का अर्थ है माँ का अपने नाबालिग बच्चों की कस्टडी रखने का अधिकार। शरिया के तहत, माँ को अपने बच्चों की कस्टडी रखने का अधिकार है, खासकर जब वे छोटे हों। माँ को आम तौर पर अपने बच्चों की प्राकृतिक अभिभावक माना जाता है और उन्हें पिता की तुलना में कस्टडी के लिए प्राथमिकता दी जाती है, खासकर उन बच्चों के लिए जो 7 साल (लड़के के लिए) और 9 साल (लड़की के लिए) से कम उम्र के हैं। यह बच्चे के कल्याण को सुनिश्चित करने के सिद्धांत पर आधारित है, खासकर उनके भावनात्मक और शारीरिक विकास के लिए। 2. मातृ अभिरक्षा के लिए वरीयता: लड़के: लड़के के लिए, माँ आम तौर पर 7 वर्ष की आयु तक अभिरक्षा की हकदार होती है। उसके बाद, अभिरक्षा पिता को दी जा सकती है, खासकर अगर यह बच्चे के सर्वोत्तम हित में हो। लड़कियाँ: लड़की के लिए, माँ आम तौर पर 9 वर्ष की आयु तक अभिरक्षा रखती है। इसके बाद, पिता को अभिरक्षा दी जा सकती है जब तक कि अदालत को यह न लगे कि यह बच्चे के सर्वोत्तम हित में नहीं है। हालाँकि, यह एक पूर्ण नियम नहीं है। सभी मामलों में आयु सीमाएँ सख्ती से तय नहीं की जाती हैं, और अदालत बच्चे के सर्वोत्तम हितों के आधार पर अभिरक्षा का फैसला कर सकती है, जिसमें बच्चे की इच्छाएँ, बच्चे की देखभाल करने की माँ की क्षमता और सामान्य वातावरण शामिल हो सकते हैं। 3. बच्चे के सर्वोत्तम हित: मुस्लिम कानून बच्चे के सर्वोत्तम हितों को ध्यान में रखता है। यदि माँ बच्चे की उचित देखभाल करने में असमर्थ है या यदि उपेक्षा या दुर्व्यवहार का सबूत है, तो पिता को अभिरक्षा दी जा सकती है। अभिरक्षा निर्णयों में बच्चे का कल्याण हमेशा सर्वोपरि होता है। 4. पुनर्विवाह के बाद माँ के संरक्षण के अधिकार: यदि माँ पुनर्विवाह करती है, तो वह संरक्षण के अपने अधिकार को खो सकती है। परिस्थितियों के आधार पर, तब संरक्षण नानी या किसी अन्य महिला रिश्तेदार को दिया जा सकता है। हालाँकि, यदि बच्चा लड़की है, तो उसे पुनर्विवाह के बाद भी माँ के साथ रहने की अनुमति दी जा सकती है, यदि न्यायालय यह निर्धारित करता है कि माँ के पुनर्विवाह से बच्चे की भलाई पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा। 5. पिता के मुलाक़ात के अधिकार: जबकि आम तौर पर माँ के पास संरक्षण होता है, पिता के पास मुलाक़ात के अधिकार होते हैं। वह बच्चे के साथ समय बिताने का हकदार है, लेकिन सटीक व्यवस्था परिस्थितियों और बच्चे के कल्याण पर निर्भर करेगी। 6. संरक्षकता (विलायाह): विलायाह मुस्लिम कानून के तहत पिता के संरक्षकता अधिकारों को संदर्भित करता है। जबकि माँ के पास संरक्षण हो सकता है, पिता को आम तौर पर बच्चे के वित्तीय, शैक्षिक और कानूनी निर्णयों पर अधिकार रखने वाला कानूनी संरक्षक माना जाता है। 7. वित्तीय सहायता का अधिकार: अभिरक्षा व्यवस्था के बावजूद, पिता शरिया कानून के तहत बच्चे को वित्तीय सहायता देने के लिए बाध्य है। इसमें बच्चे के भरण-पोषण, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और समग्र कल्याण के प्रावधान शामिल हैं। 8. अभिरक्षा निर्णयों में न्यायालय की भूमिका: ऐसे मामलों में जहां अभिरक्षा को लेकर विवाद है, कोई भी पक्ष समाधान के लिए पारिवारिक न्यायालय या शरिया न्यायालय (कुछ मामलों में) का दरवाजा खटखटा सकता है। न्यायालय बच्चे की भलाई, बच्चे की देखभाल करने की माता और पिता की क्षमताओं और प्रत्येक माता-पिता के साथ बच्चे के रिश्ते पर विचार करेगा। 9. तलाक पर मुस्लिम महिला अधिकार संरक्षण अधिनियम (1986): तलाक पर मुस्लिम महिला अधिकार संरक्षण अधिनियम तलाकशुदा मुस्लिम महिला को कुछ अधिकार देता है, जिसमें बच्चों की अभिरक्षा का अधिकार भी शामिल है। यह कानून तलाक के बाद कुछ परिस्थितियों में बच्चों की अभिरक्षा बनाए रखने के लिए माँ के अधिकार को बरकरार रखता है। 10. कोई पूर्ण अभिरक्षा नहीं: मुस्लिम कानून बच्चों की पूर्ण अभिरक्षा माँ को नहीं देता; यह हमेशा बच्चे के सर्वोत्तम हित के अधीन होता है। कुछ मामलों में, पिता को अभिरक्षा दी जा सकती है, खासकर तब जब माँ को अयोग्य माना जाता है, जैसे कि अगर वह दोबारा शादी कर चुकी है या उचित देखभाल करने में असमर्थ है। निष्कर्ष के तौर पर, जबकि मुस्लिम कानून आम तौर पर नाबालिग बच्चों, खासकर छोटे बच्चों की माँ की अभिरक्षा का पक्षधर है, यह अंततः बच्चे के कल्याण को प्राथमिकता देता है। न्यायालयों को बच्चे की समग्र भलाई और सर्वोत्तम हितों को ध्यान में रखते हुए, मामले-दर-मामला आधार पर अभिरक्षा मामलों की समीक्षा करने का अधिकार है।
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