भारतीय कानून में, जिला न्यायाधीश संदर्भ के आधार पर विभिन्न प्रकार के कानूनी प्रमाण-पत्र जारी करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रमाण-पत्र जारी करने में जिला न्यायाधीश की भूमिका का सामान्य विवरण इस प्रकार है: 1. उत्तराधिकार प्रमाण-पत्र: जिला न्यायाधीश द्वारा जारी किया जाने वाला सबसे आम प्रकार का प्रमाण-पत्र भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के तहत उत्तराधिकार प्रमाण-पत्र है। उद्देश्य: मृतक व्यक्ति को दिए गए ऋण या प्रतिभूतियों को इकट्ठा करने के लिए कानूनी उत्तराधिकारी को अधिकृत करना। अधिकार-क्षेत्र: उस क्षेत्र के जिला न्यायाधीश को यह प्रमाण-पत्र जारी करने का अधिकार है, जहाँ मृतक मृत्यु के समय सामान्य रूप से रहता था। प्रक्रिया: भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 372 के तहत याचिका दायर की जाती है। न्यायाधीश दस्तावेजों की जांच करता है और आपत्तियों (यदि कोई हो) पर सुनवाई करता है। संतुष्टि के बाद, न्यायाधीश सही व्यक्ति को प्रमाण-पत्र प्रदान करता है। 2. कानूनी उत्तराधिकारी प्रमाण पत्र / जीवित सदस्य प्रमाण पत्र (कुछ राज्यों में): हालांकि यह आमतौर पर तहसीलदार या राजस्व अधिकारी द्वारा जारी किया जाता है, लेकिन विवादित या जटिल मामलों में, पक्षों को निर्णय के लिए सिविल कोर्ट या जिला न्यायाधीश से संपर्क करने का निर्देश दिया जा सकता है। 3. संरक्षकता प्रमाण पत्र: संरक्षक और वार्ड अधिनियम, 1890 के तहत, जिला न्यायाधीश एक अभिभावक की नियुक्ति कर सकता है और नाबालिग या विकलांग व्यक्ति के लिए संरक्षकता प्रमाण पत्र जारी कर सकता है। 4. प्रोबेट और प्रशासन के पत्र: कुछ मामलों में, खासकर जब किसी मृत व्यक्ति की संपत्ति शामिल होती है, तो जिला न्यायाधीश (या मूल अधिकार क्षेत्र का प्रधान सिविल न्यायालय) प्रोबेट (यदि कोई वसीयत है) या प्रशासन के पत्र (यदि कोई वसीयत नहीं है) प्रदान करता है। जिला न्यायाधीश की मुख्य भूमिका: यह सुनिश्चित करता है कि उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन किया जाए। आवेदक की पहचान और अधिकारों का सत्यापन करता है। संपत्ति, प्रतिभूतियों या संरक्षकता पर दावों के लिए न्यायिक स्वीकृति प्रदान करता है। विवादों के मामले में कानूनी उपाय प्रदान करता है।
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