सभी घरेलू हिंसा मामलों में परामर्श या मध्यस्थता अनिवार्य नहीं है, लेकिन मामले की प्रकृति और न्याय के हितों के आधार पर न्यायालय अपने विवेक से इसका निर्देश दे सकता है। भारतीय कानून के आधार पर विस्तृत विवरण इस प्रकार है: 1. कानूनी ढांचा घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम, 2005 के तहत पीड़ित महिला के लिए संरक्षण और राहत पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, जैसे निवास आदेश, सुरक्षा आदेश, मौद्रिक राहत और बच्चे की कस्टडी। अधिनियम मुख्य रूप से नागरिक प्रकृति का है, हालांकि आदेशों का उल्लंघन करने पर आपराधिक परिणाम हो सकते हैं। 2. परामर्श की भूमिका अधिनियम की धारा 14 मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देती है कि यदि आवश्यक हो तो वह पक्षों को परामर्शदाता के पास भेज सकता है। परामर्शदाता का काम पक्षों के बीच गलतफहमी को दूर करने या संघर्ष को कम करने में सहायता करना है। - यह विवेकाधीन है, अनिवार्य नहीं। न्यायालय इस बात पर विचार करेगा कि तथ्यों (जैसे, दुर्व्यवहार की गंभीरता या पीड़ित के लिए जोखिम) के आलोक में ऐसा कदम उचित है या नहीं। 3. मध्यस्थता - न्यायालय उन मामलों में मध्यस्थता की अनुशंसा कर सकते हैं, जहाँ सुलह संभव प्रतीत होती है, खासकर जब पक्षकार अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं। - हालाँकि, गंभीर शारीरिक दुर्व्यवहार, जीवन के लिए खतरा, या आदतन हिंसा वाले मामलों में मध्यस्थता लागू नहीं की जाती है, जहाँ महिला की सुरक्षा दांव पर होती है। - यदि मध्यस्थता का प्रयास किया भी जाता है, तो यह स्वैच्छिक होना चाहिए और मजबूर नहीं होना चाहिए। 4. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के विचार - न्यायालयों ने बार-बार माना है कि मध्यस्थता से महिला की सुरक्षा, गरिमा या अधिकारों से समझौता नहीं होना चाहिए। - मध्यस्थता का उपयोग अधिनियम के तहत सुरक्षा में देरी या उसे कम करने के साधन के रूप में नहीं किया जाना चाहिए। 5. संरक्षण अधिकारी की भूमिका - संरक्षण अधिकारी महिला को परामर्श या सहायता सेवाएँ सुझा सकते हैं, लेकिन फिर से, ये सहायता तंत्र हैं, कानूनी आवश्यकताएँ नहीं। संक्षेप में: - सभी घरेलू हिंसा मामलों में परामर्श या मध्यस्थता अनिवार्य नहीं है। - इसे धारा 14 के तहत मामला-दर-मामला आधार पर मजिस्ट्रेट द्वारा आदेशित किया जा सकता है। - गंभीर दुर्व्यवहार से जुड़े मामलों में, अदालतें आमतौर पर महिला की सुरक्षा और न्याय सुनिश्चित करने के लिए ऐसी प्रक्रियाओं से बचती हैं।
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