केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामला (1973) भारतीय विधि इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक मामलों में से एक है। इसने मूल संरचना सिद्धांत की स्थापना की। मामले के मुख्य तथ्य: पृष्ठभूमि: केरल के एक धार्मिक मठ के प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती ने केरल सरकार द्वारा बनाए गए भूमि सुधार कानूनों को चुनौती दी, जो मठ की संपत्ति को प्रभावित करते थे। यह चुनौती अनुच्छेद 26 (धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता) और अन्य संवैधानिक अधिकारों के अंतर्गत थी। मुद्दा: क्या संसद को अनुच्छेद 368 के तहत मौलिक अधिकारों सहित संविधान में संशोधन करने की असीमित शक्ति प्राप्त है? निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने 7-6 के बहुमत से यह निर्णय दिया कि संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, जिसमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं। हालाँकि, यह संविधान के "मूल ढाँचे" को बदल या नष्ट नहीं कर सकता। "मूल ढाँचे" में निम्नलिखित सिद्धांत शामिल हैं: संविधान की सर्वोच्चता विधि का शासन शक्तियों का पृथक्करण न्यायिक समीक्षा मौलिक अधिकार धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र प्रभाव: इस मामले ने संसद की संशोधन शक्ति को सीमित कर दिया, संविधान के मूल मूल्यों की रक्षा की। इसने संवैधानिक दुरुपयोग के विरुद्ध सुरक्षा के रूप में न्यायिक समीक्षा को संरक्षित रखा। यह भारत में संवैधानिक अखंडता और लोकतंत्र को कायम रखने वाला एक ऐतिहासिक मामला बना हुआ है।
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